प्रयाग भारत
रायबरेली । आज जहाँ चारों ओर कीकर के पेड़ नज़र आते है, वहीं कालांतर में आम व महुआ के विशालकाय पेड़ हुआ करते थे. यह पेड़ जहाँ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बल देते थे, वहीं तमाम घरों की जीविका इन्हीं पर निर्भर थी एक समय आम के बौरों की मादक गंध से वातावरण सुगंधित हो जाता था तभी महुआ मे भी कूचें परिलक्षित होकर अपने फूलों को जमीन पर चादर की तरह बिछा देती थी, इन्हीं फूलों से तरह तरह के पकवान बनाए जाते थे इनके खत्म होते ही आम, आम आदमी सहारे की लाठी की तरह खड़ा हो जाता था, इधर आमों के साथ महुआ के फलों की सब्जी गरीबों का सालन बन जाती साथ जामुन और गूलर खाकर गरीब का पोषण हो जाया करता था। किन्तु आज विकास ने बहुत सारे पेड़ों को निगल लिया है जनसंख्या वृद्धि ने जमीन का रकबा कम कर दिया है, जिससे किसान भी बड़े एवं देशी की जगह व्यवसायिक पेड़ों को तव्वजो दे रहा है, वहीं सरकार के द्वारा भी जो वृक्षारोपण किया जाता है उनमें भी इन वृक्षों को नहीं के बराबर तरजीह मिलती है ऐसे में महुआ जैसे अन्य सभी तरह के पेड़ अतीत के गर्भ में समाते दिखाई पड़ते हैं शायद आगामी सरकारें इस दिशा में भी कुछ कार्य करें इसी उम्मीद में आम आदमी आशा की डोर पकड़े दिखाई देता है।
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